Psalms 35
1 हे प्रभु, जो मनुष्य मुझ से संघर्ष करते हैं, उनके साथ संघर्ष कर। जो व्यक्ति मुझ से युद्ध करते हैं, उनके साथ युद्ध कर।
2 तू कवच और ढाल संभाल, और मेरी सहायता के लिए उठ।
3 जो मनुष्य मेरा पीछा करते हैं, उनके विरुद्ध बर्छी और भाला उठा। तू मेरे प्राण से यह कह, “मैं ही तेरा उद्धारकर्ता हूँ।”
4 जो मनुष्य मेरे प्राण के खोजी हैं, वे लज्जित और अपमानित हों। जो मेरी बुराई के उपाय करते हैं, वे पीठ दिखाएं और पराजित हों।
5 वे पवन के सन्मुख भूसा जैसे हो जाएं; और प्रभु का दूत उन्हें हांकता जाए।
6 उनका मार्ग अंधकारमय और फिसलने वाला बन जाए, और प्रभु का दूत उनका पीछा करता जाए।
7 अकारण उन्होंने मेरे लिए जाल बिछाया; अकारण ही उन्होंने मेरे निमित्त गड्ढा खोदा।
8 अकस्मात् उनका सर्वनाश हो जाए। जो जाल उन्होंने बिछाया है, वे उसमें स्वयं फंस जाएं, वे उसमें गिर पड़ें और उनका सर्वनाश हो जाए!
9 तब मेरा प्राण प्रभु में आनन्दित होगा; उसके उद्धार से हर्षित होगा।
10 मेरी समस्त अस्थियाँ यह कहेंगी, “हे प्रभु! तुझ जैसा और कौन है?” तू पीड़ित व्यक्ति को महाबली से, दु:खी और दरिद्र को लुटेरों से मुक्त करता है।
11 मेरे विरुद्ध हिंसक गवाह खड़े होते हैं; जो बातें मैं नहीं जानता, वही वे मुझसे पूछते हैं।
12 वे मुझे भलाई का प्रतिफल बुराई से देते हैं; मेरा प्राण निराशा में डूब गया है।
13 परन्तु जब वे रोगी थे, तब मैंने पश्चात्ताप के लिए टाट ओढ़ा था। स्वयं को भूख-प्यास से पीड़ित किया था। मैंने नतमस्तक हो प्रार्थना की थी।
14 मेरी यह भावना थी मानो वह मेरा आत्मीय हो, मेरा भाई हो। मैंने सिर झुकाकर मातृशोक जैसा विलाप किया था।
15 किन्तु जब मैं लड़खड़ाकर गिर पड़ा तब वे हर्षित होकर एकत्र हो गए। वे मेरे विरुद्ध एक हो गए। नीच व्यक्ति, जिन्हें मैं जानता ही नहीं, निरन्तर मुझे फाड़ते रहे।
16 उन्होंने दुष्टतापूर्वक मेरा मज़ाक उड़ाया । वे मुझ पर दांत पीसते रहे।
17 स्वामी, तू कब तक यह देखता रहेगा? मुझे उनके उपद्रव से, मेरे इस एक ही जीवन को युवा सिंहों से मुक्त कर।
18 तब मैं आराधकों की महासभा में तेरी स्तुति करूंगा; अपार जनसमूह में तेरा गुणगान गाऊंगा।
19 जो धूर्ततावश मेरे शत्रु बने हैं, उन्हें मुझ पर हंसने न दे। जो अकारण मुझसे घृणा करते हैं, उन्हें आंखों से इशारा न करने दे।
20 वे शांति के वचन नहीं बोलते; वरन् संसार के शांतिप्रिय लोगों के विरुद्ध छल-कपट के उपाय सोचते हैं।
21 वे मेरे विरुद्ध अपना मुंह फाड़ते हैं; वे यह कहते हैं, “अहा! हमारी आंखों ने उसे देखा है।”
22 प्रभु, तूने यह देखा लिया, अब चुप न रह, हे मेरे स्वामी, मुझसे दूर न रहो।
23 हे मेरे परमेश्वर, हे मेरे स्वामी, जाग। मेरे न्याय के लिए, मेरे प्रतिवाद के लिए उठ।
24 हे मेरे प्रभु परमेश्वर, अपनी धार्मिकता के कारण मुझे निर्दोष सिद्ध कर, उन्हें मुझ पर हंसने न दे।
25 वे अपने आप से यह न कह सकें, “अहा! हमारी इच्छा पूर्ण हुई।” वे बोल न पाएं, “हमने उसे निगल लिया।”
26 जो लोग मेरी विपत्ति पर हंसते हैं, उन्हें पूर्णत: लज्जित और अपमानित कर। जो व्यक्ति मेरे विरुद्ध शक्ति संचित करते हैं, उन्हें लज्जा और अनादर से ढांप दे।
27 जो लोग मेरे दोष-मुक्त होने की कामना करते हैं, वे जयजयकार करें, वे हर्षित हो। वे निरन्तर यह कहते रहें, “प्रभु महान है; वह अपने सेवक के कल्याण से सुखी होता है।”
28 तब मैं तेरी धार्मिकता का पाठ, और तेरी स्तुति निरन्तर करता रहूंगा।