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Lamentations 3

:
Hindi - CLBSI
1 मैं वह पुरुष हूं, जिसने प्रभु के कोप-दण्‍ड का दु:ख भोगा है।
2 उसने मुझे खदेड़ा, और यहाँ प्रकाशहीन, गहन अंधकार में पहुंचा दिया।
3 निस्‍संदेह क्रोध में उसका हाथ मुझ पर बार- बार, वस्‍तुत: दिन-भर उठा रहता है।
4 प्रभु ने मेरी चमड़ी, और मेरा मांस गला दिया; उसने मेरी हड्डियाँ चूर-चूर कर दीं।
5 उसने मुझे पकड़ा, और कटुता और कष्‍ट का विष पिलाया।
6 अतीत में मृतकों के सदृश उसने मुझे अंधेरे बन्‍दीगृह में बसा दिया।
7 प्रभु ने मेरे चारों ओर घेराबन्‍दी की, अत: मैं भाग सका। उसने मुझे जंजीरों से जकड़ दिया।
8 यद्यपि मैं उसको पुकारता हूं, उसकी दुहाई देता हूं, तो भी वह मेरी प्रार्थना नहीं सुनता।
9 उसने मेरे निकलने के मार्ग को भारी पत्‍थरों से बन्‍द कर दिया, उसने मेरे सरल मार्ग टेढ़े-मेढ़े बना दिए।
10 प्रभु मेरी घात में एक रीछ की तरह लगा है; वह छिपकर बैठे सिंह के समान है।
11 उसने मुझे मेरे मार्ग में दबोचा, और मेरे टुकड़े-टुकड़े कर दिए; उसने मुझको उजाड़ दिया।
12 उसने अपना धनुष चढ़ाया, और मुझे अपने तीर का निशाना बना दिया।
13 प्रभु ने अपने तरकश के तीरों से मेरे हृदय को बेध दिया।
14 सब लोग मेरा मजाक उड़ाते हैं, वे दिन भर मुझ पर गीत लिखते हैं।
15 उसने मेरे जीवन में कड़ुवाहट भर दी; उसने मुझे भरपेट चिरायता पिलाया!
16 प्रभु ने मेरे दांतों में कंकड़ भर दिए, और मुझे राख के ढेर पर बिठा दिया!
17 मेरी आत्‍मा सुख-शांति से वंचित हो गई; मैं भूल गया कि भलाई क्‍या होती है।
18 इसलिए मैं यह कहता हूं, ‘मेरा सुख समाप्‍त हो गया; मेरी आशा, जो प्रभु से मैंने की थी, उसका अंत हो गया।’
19 हे प्रभु, मेरी पीड़ा और मेरे दु:ख को स्‍मरण कर, देख, मैं कड़ुवाहट से पूर्ण विष और चिरायता पी चुका हूं।
20 मेरी आत्‍मा सदा इसी बात को सोचती रहती है; मेरा प्राण भीतर ही भीतर दब गया है।
21 परन्‍तु मैं अपने हृदय में यह स्‍मरण करता हूं, अत: मेरी यह आशा नहीं टूटती:
22 प्रभु की करुणा निरन्‍तर बनी रहती है; उसकी दया अनंत है।
23 रोज सबेरे उसमें नए अंकुर फूटते हैं; उसकी सच्‍चाई अपार है।
24 मेरा प्राण कहता है, ‘प्रभु ही मेरा अंश है, अत: मैं उसकी आशा करूंगा।’
25 जो लोग प्रभु की बाट जोहते हैं, जो आत्‍मा उसकी खोज करती है, उसके प्रति प्रभु भला है।
26 यह मनुष्‍य के हित में है, कि वह शांति से प्रभु के उद्धार की प्रतीक्षा करे।
27 यह मनुष्‍य के लिए हितकर है कि वह बचपन से अपना जूआ उठाए!
28 जब मनुष्‍य को यह अनुभव हो कि प्रभु ने उसे दण्‍डित किया है, तब वह चुपचाप उसे स्‍वीकार कर ले।
29 वह भूमि पर लेटकर पश्‍चात्ताप करे, और आशा का परित्‍याग करे।
30 वह मारनेवाले की ओर अपना गाल कर दे, और अपमान का घूंट पी जाए।
31 स्‍वामी सदा के लिए मनुष्‍य का परित्‍याग नहीं करता।
32 यद्यपि वह मनुष्‍य को दु:ख देता है, तथापि वह उस पर दया भी करता है; क्‍योंकि वह करुणा-सागर है।
33 वह स्‍वेच्‍छा से मनुष्‍यों को पीड़ित नहीं करता, और ही उन्‍हें दु:ख देता है।
34 स्‍वामी इन तीन कार्यों को पसन्‍द नहीं करता: पृथ्‍वी के समस्‍त बन्‍दियों को पैरों तले रौंदना;
35 सर्वशक्‍तिमान परमेश्‍वर के सम्‍मुख मनुष्‍य को उसके मूलभूत अधिकारों से वंचित करना;
36 और किसी निर्दोष व्यक्‍ति को दोषी ठहराना।
37 जब तक स्‍वामी आदेश दे, तब तक क्‍या किसी मनुष्‍य के वचन के अनुसार कुछ हो सकता है?
38 सर्वशक्‍तिमान परमेश्‍वर के मुंह से ही अच्‍छाई और बुराई दोनों निकलती हैं।
39 तब जीवित मनुष्‍य प्रभु के न्‍याय की शिकायत क्‍यों करे; मनुष्‍य अपने पाप के दण्‍ड के लिए क्‍यों कुड़कुड़ाए?
40 आओ, हम अपने आचरण की जांच- पड़ताल करें, और प्रभु की ओर लौटें!
41 आओ, हम स्‍वर्ग में विराजमान परमेश्‍वर की ओर अपने हृदय और हाथ उठाएँ और यह कहें:
42 ‘प्रभु, हमने तेरे प्रति अपराध किया, हमने तुझसे विद्रोह किया; और तूने हमें क्षमा नहीं किया।
43 ‘तूने क्रोध में भरकर हमारा पीछा किया, और निर्दयतापूर्वक हमारा वध किया।
44 तूने स्‍वयं को मेघ से ढक लिया, ताकि हमारी प्रार्थना तेरे पास पहुंच सके।
45 तूने हमें विश्‍व की कौमों के मध्‍य कूड़ा-कर्कट बना दिया!
46 हमारे सब शत्रु हमारे विरुद्ध मुंह बनाते हैं।
47 आतंक और पतन, विध्‍वंस और विनाश हम पर टूट पड़े हैं।’
48 अपने लोगों की नगरी का विनाश देखकर मेरी आंखों से आंसू की नदी बहती है।
49 मेरी आंखों से लगातार, अविराम आंसू बहते रहेंगे
50 जब तक स्‍वर्ग से प्रभु हम पर दृष्‍टिपात नहीं करेगा।
51 अपने नगर की कन्‍याओं का हाल देखकर मेरी आंखें दु:ख से त्रस्‍त हो गई हैं, मेरे प्राण को क्‍लेश होता है।
52 मेरे शत्रुओं ने जो अकारण ही मुझसे शत्रुता करते थे, शिकारी पक्षी के सदृश मेरा पीछा किया।
53 उन्‍होंने मेरा वध करने के लिए मुझे गड्ढे में डाल दिया, और मुझपर पत्‍थर लुढ़काए।
54 मेरे सिर तक पानी गया, मैंने सोचा, “अब मैं डूब जाऊंगा।”
55 ‘हे प्रभु, तब मैंने तेरे नाम की दुहाई दी; मृत्‍यु के गड्ढे के भीतर से तुझे पुकारा।
56 प्रभु, मेरी दुहाई की पुकार से अपने कान बन्‍द कर! निस्‍सन्‍देह तूने मेरी दुहाई सुन ली।
57 जब मैंने तुझे पुकारा तब तू मेरे पास आया, और तूने मुझसे कहा, “मत डर!”
58 ‘हे स्‍वामी, तूने अपने हाथ में मेरा मुकदमा लिया, और मेरे प्राण को बचाया।
59 जो अन्‍याय मेरे साथ किया गया, उसको तूने देखा है, हे प्रभु, मेरा न्‍याय कर।
60 जो बदला उन्‍होंने मुझसे लिया है, जो षड्‍यन्‍त्र उन्‍होंने मेरे विरुद्ध रचे हैं, उन सबको तूने देखा है।
61 ‘हे प्रभु, जो वे ताना मारते हैं, उनको तूने सुना है; जो षड्‍यन्‍त्र उन्‍होंने मेरे विरुद्ध रचे हैं, उनको तू जानता है।
62 मुझ पर आक्रमण करने वालों के वचन और विचार दिन भर मेरे विरुद्ध रहते हैं।
63 देख, वे हर समय, उठते-बैठते मेरे विषय में व्‍यंग्‍य-गीत गाते हैं।
64 ‘हे प्रभु, मैं जानता हूं कि तू उनके दुष्‍कर्मों के अनुसार उनको प्रतिफल देगा।
65 तू उनके हृदय में विकार भर देगा, तेरा अभिशाप उन पर होगा।
66 हे प्रभु, क्रोध में भरकर तू उनका पीछा करेगा, और उनको आकाश के नीचे से मिटा देगा।’