Job 30
1 ‘पर अब वे, जो मुझसे उम्र में छोटे हैं, मेरी खिल्ली उड़ाते हैं, जिनके पिताओं को मैं इस योग्य भी नहीं समझता था कि उनको अपनी भेड़-बकरियों की चौकसी करनेवाले कुत्तों के साथ बैठाता!
2 उनके बाहुबल से मुझे क्या लाभ होता, क्योंकि उनका पौरुष तो खत्म हो गया है!
3 वे अभाव और अकाल के कारण सूखी और उजाड़ भूमि चाटते हैं।
4 वे झाड़ियों के आसपास का लोनी-साग तोड़ते हैं; वे झाऊ वृक्ष की जड़ें खाते हैं!
5 वे नागरिकों के मध्य से निकाल दिए गए हैं; लोग उनके पीछे-पीछे “चोर....चोर” चिल्लाते हैं!
6 उन्हें चट्टानों की गुफाओं में, भूमि के गड्ढों में, घाटियों की संकरी गुहाओं में रहना पड़ता है।
7 वे झाड़ियों में रेंकते हैं, वे बिच्छु पौधों के नीचे इकट्ठे बैठे रहते हैं।
8 वे मूर्ख और नीच लोगों के वंशज हैं; उन्हें मार-मार कर देश से निकाल दिया गया है।
9 ‘अब मैं उन्हीं के बनाए गए व्यंग्य गीतों का पात्र बन गया हूँ। वे मुझ पर ताना मारते हैं।
10 वे मुझसे घृणा करते हैं, वे मुझसे दूर-दूर रहते हैं। वे मेरे मुंह पर थूकने से भी नहीं हिचकते।
11 परमेश्वर ने मुझे शक्तिहीन और तुच्छ बना दिया है, इसलिए वे मेरे सामने भी अपने मुंह में लगाम नहीं देते!
12 मेरी दाहिनी ओर बाजारू लोग उठते, और मुझे भगाते हैं; वे मुझे नष्ट करने के लिए नाना प्रकार के उपाय रचते हैं।
13 वे मेरे जीवन-मार्ग को तोड़-फोड़ देते हैं; वे मेरी विपत्ति को बढ़ाते हैं; फिर भी कोई उनको रोकता नहीं!
14 वे मानो चौड़ी दरार से मुझ पर धावा करते हैं; वे ध्वस्त स्थानों से मुझ पर टूट पड़ते हैं।
15 आतंक ने मुझे घेर लिया है, मेरी प्रतिष्ठा मानो हवा में उड़ गई! मेरी सुख-समृद्धि बादल के सदृश लुप्त हो गई।
16 ‘अब मैं शोक सागर में डूब गया हूं; दु:ख के दिनों ने मुझे जकड़ लिया है।
17 रात मेरी हड्डियों को चूर-चूर कर देती है; मुझे पीड़ित करनेवाला दर्द शान्त नहीं होता।
18 वह पूरे बल से मेरा वस्त्र पकड़ लेता है; मेरे कुरते के गले की तरह वह मुझे कस लेता है।
19 ‘परमेश्वर ने मुझे कीचड़ में फेंक दिया है; मैं धूल और राख जैसा हो गया हूं।
20 हे परमेश्वर, मैं तेरी दुहाई देता हूं, किन्तु तू मुझे उत्तर नहीं देता। मैं तेरे दरबार में खड़ा हूं, पर तू मुझ पर ध्यान नहीं देता।
21 तू मेरे प्रति निर्दयी हो गया है; तू अपने हाथ की पूर्ण शक्ति से मुझे सताता है।
22 ओ प्रभु, तू मुझे उठाकर वायु पर बैठा देता है; तू मुझे हवा पर सवार करता है, तू मुझे आन्धी के वेग से इधर-उधर उछालता है।
23 हां, मैं जानता हूं कि तू मुझे मृत्यु के हाथ में सौंप देगा; तू मुझे उस घर में भेज देगा, जो सब प्राणियों के लिए निश्चित् किया गया है।
24 इतना होने पर भी क्या मनुष्य मलवों के ढेर में से हाथ नहीं फैलाता? क्या वह विपत्ति में सहायता के लिए दुहाई नहीं देता?
25 ‘क्या मैं उस व्यक्ति के लिए नहीं रोया जिस पर दुर्दिन आए थे? क्या मेरा प्राण गरीबों के लिए दु:खी नहीं हुआ था?
26 किन्तु जब मैंने भलाई की बाट जोही, तब मुझे बुराई मिली; जब मैंने प्रकाश की प्रतीक्षा की, तब मेरे सिर पर अन्धकार छा गया!
27 मेरा हृदय व्याकुल है, वह क्षण भर भी शान्त नहीं होता! मेरे दु:ख के दिन समीप आ गए हैं।
28 मैं काला पड़ गया हूं, पर सूर्य की गर्मी से नहीं, मैं इसी दशा में इधर-उधर जाता हूं; मैं सभा में खड़ा होता, और सहायता के लिए दुहाई देता हूं।
29 मैं गीदड़ों का भाई-बन्धु हो गया हूं, शुतुरमुर्ग मुझे अपना साथी समझते हैं।
30 मेरी चमड़ी काली पड़कर शरीर से झड़ रही है; मेरी हड्डियां गर्मी से जल रही हैं।
31 मेरी वीणा का उल्लास-संगीत शोक-संगीत में बदल गया है; मेरी बांसुरी से रोनेवालों का स्वर निकलता है।