Romans 14
1 अब जो विश्वास में निर्बल है उसे ग्रहण करो, परंतु उसके विचारों पर विवाद करने के लिए नहीं।
2 एक का विश्वास है कि वह सब कुछ खा सकता है, परंतु जो विश्वास में निर्बल है वह साग-पात ही खाता है।
3 खानेवाला न-खानेवाले को तुच्छ न समझे; और न ही न-खानेवाला खानेवाले पर दोष लगाए, क्योंकि परमेश्वर ने उसे ग्रहण किया है।
4 तू कौन है जो दूसरे के सेवक पर दोष लगाता है? उसका स्थिर रहना या गिरना उसके स्वामी पर निर्भर है; और वह अवश्य स्थिर किया जाएगा, क्योंकि प्रभु उसे स्थिर करने में समर्थ है।
5 कोई तो एक दिन को दूसरे से बढ़कर मानता है, और कोई प्रत्येक दिन को एक समान मानता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने मन में इसके प्रति पूर्णतः आश्वस्त हो जाए।
6 जो किसी दिन को विशेष मानता है वह प्रभु के लिए मानता है। जो खाता है वह प्रभु के लिए खाता है, क्योंकि वह परमेश्वर का धन्यवाद करता है; और जो नहीं खाता वह प्रभु के लिए नहीं खाता, और वह परमेश्वर का धन्यवाद करता है।
7 क्योंकि हममें से न तो कोई अपने लिए जीता है, और न कोई अपने लिए मरता है।
8 यदि हम जीवित हैं, तो प्रभु के लिए जीवित हैं, और यदि हम मरते हैं, तो प्रभु के लिए मरते हैं। अतः चाहे हम जीएँ या मरें, हम प्रभु के ही हैं।
9 क्योंकि इसी कारण मसीह मरा और फिर जीवित हो उठा ताकि वह मृतकों और जीवितों दोनों का प्रभु हो।
10 फिर तू अपने भाई पर दोष क्यों लगाता है? या फिर तू अपने भाई को तुच्छ क्यों समझता है? हम सब परमेश्वर के न्यायासन के सामने खड़े होंगे;
11 क्योंकि लिखा है: प्रभु कहता है, इसलिए कि मैं जीवित हूँ, हर एक घुटना मेरे सामने टिकेगा और हर एक जीभ परमेश्वर का अंगीकार करेगी।
12 इसलिए हममें से प्रत्येक परमेश्वर को अपना-अपना लेखा देगा।
13 अतः अब से हम एक दूसरे पर दोष न लगाएँ, बल्कि यह निर्णय लें कि कोई अपने भाई के मार्ग में ठेस या ठोकर का पत्थर न रखे।
14 मैं जानता हूँ और प्रभु यीशु में मुझे निश्चय हुआ है कि कुछ भी अपने आपमें अशुद्ध नहीं है; परंतु जो उसे अशुद्ध समझता है, उसके लिए वह अशुद्ध है।
15 यदि तेरे भोजन के कारण तेरे भाई को दुःख पहुँचता है, तो तू प्रेम की रीति पर नहीं चलता। अपने भोजन के द्वारा तू उसे नाश न कर जिसके लिए मसीह मरा।
16 इसलिए जो बात तेरे लिए भली है, उसकी निंदा न होने दे।
17 क्योंकि परमेश्वर का राज्य खाना और पीना नहीं बल्कि धार्मिकता, मेल और पवित्र आत्मा में आनंद है।
18 जो इस प्रकार मसीह की सेवा करता है वह परमेश्वर को भावता है और मनुष्यों को ग्रहणयोग्य होता है।
19 इसलिए हम उन बातों में लगे रहें जिनसे मेल-मिलाप और एक दूसरे की उन्नति हो।
20 भोजन के कारण परमेश्वर के कार्य को नष्ट न कर। सब वस्तुएँ शुद्ध तो हैं, परंतु उस मनुष्य के लिए बुरी हैं जिसे उस भोजन से ठोकर लगती है।
21 अच्छा तो यह है कि तू न मांस खाए और न दाखरस पीए और न ही ऐसा कार्य करे जिससे तेरे भाई को चोट पहुँचे ।
22 तेरा जो विश्वास है उसे परमेश्वर के सामने अपने तक ही सीमित रख। धन्य है वह जो उस बात में जिसे वह ठीक समझता है अपने आपको दोषी नहीं ठहराता।
23 परंतु यदि कोई संदेह करके खाए तो वह दोषी ठहर चुका है, क्योंकि वह विश्वास से नहीं खाता; और जो कुछ विश्वास से नहीं, वह पाप है।