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Habakkuk 1

:
Hindi - CLBSI
1 नबी हबक्‍कूक ने दर्शन में परमेश्‍वर की वाणी सुनी।
2 नबी हबक्‍कूक ने कहा, ‘प्रभु, मैं कब तक सहायता के लिए तुझे पुकारता रहूंगा, और तू मेरी पुकार को अनसुनी करता रहेगा? मैं “त्राहि-त्राहि” करता हूं, पर तू मुझे नहीं बचाता।
3 तू मुझे दुष्‍कर्म क्‍यों दिखाता है? समाज में ये आपदाएँ क्‍यों हैं? मैं अपनी आंखों से विनाश और हिंसा को देखता हूं। लड़ाई-झगड़े होते हैं।
4 व्‍यवस्‍था कमजोर पड़ गई, न्‍याय का प्रभाव समाप्‍त हो गया। दुर्जनों ने धार्मिक जन को घेर लिया; न्‍याय का गला घोंट दिया गया।’
5 प्रभु ने कहा, ‘राष्‍ट्रों की ओर दृष्‍टि डालो; आंखें फाड़कर देखो; तब तुम विस्‍मित होगे, तुम्‍हें आश्‍चर्य होगा। मैं तुम्‍हारे जीवन-काल में ऐसा कार्य करूंगा जिसे सुनकर तुम्‍हें विश्‍वास नहीं होगा।
6 मैं कसदी राष्‍ट्र को युद्ध के लिए उभारूंगा; वह खूंखार और वेगवान है। वह पृथ्‍वी के कोने-कोने में जाकर उन स्‍थानों पर कब्‍जा करता है, जो उसके नहीं हैं।
7 वह भयानक और विकराल राष्‍ट्र है। उसके अपने न्‍याय-सिद्धान्‍त और अपनी मर्यादा है।
8 उसके घोड़े चीतों से भी वेगवान हैं, वे शाम को शिकार की तलाश में निकलनेवाले भेड़ियों से भी खूंखार हैं। उसके घुड़सवार शान में दुलकी चाल से बढ़ते हैं। वे दूर से रहे हैं; वे बाज की गति से शिकार खाने के लिए दौड़ते हैं।
9 वे सब हिंसा करने के लिए आते हैं। उनके आतंक की खबर उनसे पहले पहुंचती है। वे रेतकणों की तरह असंख्‍य लोगों को बंदी बनाते हैं।
10 वे राजाओं की हंसी उड़ाते, और शासकों का उपहास करते हैं। वे किलों को देखकर हंसते हैं। वे दमदमा बांधकर उनको जीत लेते हैं।
11 तब वे आंधी की तरह आगे बढ़ जाते हैं। वे लोग दोषी हैं, जो अपने बल को ही अपना ईश्‍वर समझते हैं।’
12 ‘हे प्रभु, मेरे परमेश्‍वर, मेरे पवित्र परमेश्‍वर, तू अनादि है। इस कारण हम नहीं मरेंगे हे प्रभु, तूने न्‍याय के लिए कसदी राष्‍ट्र को नियुक्‍त किया है। हे हमारी चट्टान, तूने हमें ताड़ित करने के लिए उसे निश्‍चित किया है।
13 हे प्रभु, तू निर्मल आंखोंवाला है, अत: तू बुराई को देख नहीं सकता। तू अन्‍याय को देख नहीं सकता। तब तू, प्रभु, बेईमान लोगों को क्‍यों देखता है? दुर्जन अपने से अधिक धार्मिक जन को निगल जाता है; तब भी तू चुप है। क्‍यों?
14 समुद्र की मछलियों की तरह, रेंगनेवाले जीव-जन्‍तुओं की तरह, जिनका कोई शासक नहीं होता, तूने मनुष्‍यों को बनाया है।
15 मछुआ उन सबको कांटे से ऊपर खींचता है, अपने जाल से उन्‍हें घसीटता है। वह महाजाल में उन्‍हें फंसाता है। तब वह आनन्‍दित और प्रसन्न होता है।
16 अत: मछुआ अपने जाल के सम्‍मुख बलि चढ़ाता है। वह महाजाल के सामने धूप जलाता है। जाल और महाजाल के द्वारा ही वह सुख से जीवन बिताता है, घी-चुपड़ी रोटी खाता है।
17 प्रभु, क्‍या वह जाल में मछली सदा पकड़ता रहेगा? क्‍या वह निर्दयता से राष्‍ट्रों का वध हमेशा करता रहेगा?’