Acts 28
1 बच जाने के बाद हमें पता चला कि द्वीप का नाम माल्टा है।
2 वहाँ के निवासियों ने हमारे साथ बड़ा अच्छा व्यवहार किया। पानी बरसने लगा था और ठण्ड पड़ रही थी, इसलिए उन्होंने आग जला कर हम-सब का स्वागत किया।
3 पौलुस लकड़ियों का गट्ठा एकत्र कर आग पर रख ही रहे थे कि एक साँप ताप के करण उस में से निकला और उनके हाथ से लिपट गया।
4 द्वीप के निवासी उनके हाथ में साँप लिपटा देख कर आपस में कहने लगे, “निश्चय ही यह व्यक्ति हत्यारा है। यह समुद्र से तो बच गया है, किन्तु ईश्वरीय न्याय ने इसे जीवित नहीं रहने दिया।”
5 पौलुस ने साँप को आग में झटक दिया और उन्हें कोई हानि नहीं हुई।
6 वे प्रतीक्षा करने लगे कि वह सूज जायेंगे या अचानक गिरकर मर जायेंगे। किन्तु जब देर तक प्रतीक्षा करने के बाद उन्होंने देखा कि पौलुस को कोई हानि नहीं हो रही है, तो उनका विचार बदल गया और वे कहने लगे कि यह कोई देवता है।
7 उस स्थान के समीप ही द्वीप के मुखिया पुब्लियुस के खेत थे। उसने हमारा स्वागत किया और तीन दिन तक प्रेम-भाव से हमारा आतिथ्य-सत्कार किया।
8 अब ऐसा हुआ कि पुब्लियुस का पिता बुख़ार और पेचिश से पीड़ित था। अत: पौलुस उसके पास घर में गए। उन्होंने प्रार्थना की और उस पर हाथ रख कर उस को स्वस्थ कर दिया।
9 जब यह बात हुई तब द्वीप के अन्य रोगी भी आये और स्वस्थ हो गये।
10 इसलिए लोगों ने बहुत उपहार देकर हमारा आदर-सम्मान किया और जब हम वहाँ से चलने लगे, तो जो कुछ हमें जरूरी था, उन्होंने वह सब जुटा दिया।
11 हम तीन महीने के पश्चात् सिकन्दरिया के एक जलयान पर चढ़े, जिसने इस द्वीप में शीत-ऋतु बितायी थी। इस जलयान का चिह्न था “मिथुन”।
12 हम सुरकूसा बंदरगाह में लंगर डाल कर तीन दिन वहाँ रहे।
13 हम वहाँ से लंगर खोलकर रेगियुम तक आये। दूसरे दिन दक्षिणी हवा चलने लगी, इसलिए हम एक दिन बाद पुतियुली बंदरगाह पहुँचे।
14 वहाँ विश्वासी भाई-बहिनों से भेंट हुई और हम उनके अनुरोध पर सात दिन उनके साथ रहे। इस प्रकार हम रोम तक आ गए।
15 वहाँ के भाई-बहिन हमारे आगमन का समाचार सुनकर, अप्पियुस के चौक तक और “तीन सराय” नामक स्थान तक हमारा स्वागत करने आये। उन्हें देख कर पौलुस ने परमेश्वर को धन्यवाद दिया और वह प्रोत्साहित हुए।
16 जब हम रोम पहुंचे, तो पौलुस को यह अनुमति मिल गई कि वह पहरा देने वाले सैनिक के साथ जहाँ चाहें, रह सकते हैं।
17 तीन दिन के पश्चात् पौलुस ने प्रमुख यहूदियों को अपने पास बुलाया और उनके एकत्र हो जाने पर उनसे कहा, “भाइयो! मैंने न तो हमारी जाति के विरुद्ध कोई अपराध किया और न पूर्वजों कि प्रथाओं के विरुद्ध, फिर भी मुझे यरूशलेम में बन्दी बनाया गया और रोमियों के हवाले कर दिया गया है।
18 वे जांच के बाद मुझे मुक्त करना चाहते थे, क्योंकि उन्होंने मुझमें प्राणदण्ड के योग्य कोई कार्य नहीं पाया।
19 किन्तु जब वहां के यहूदी इसका विरोध करने लगे, तो मुझे सम्राट की दुहाई देनी पड़ी, यद्यपि यह नहीं कि मुझे अपने ही लोगों पर कोई अभियोग लगाना था।
20 इसी कारण मैंने आप लोगों को आमंत्रित किया कि आपसे मिलूं और बातें करूं। क्योंकि इस्राएल की आशा के कारण ही मैं इस जंजीर से जकड़ा गया हूँ।”
21 उन्होंने पौलुस से कहा, “हम लोगों को यहूदा प्रदेश से आपके विषय में कोई पत्र नहीं मिला और न वहाँ आये हुए किसी भाई ने आपके विषय में कोई संदेश दिया या आपकी बुराई की।
22 किन्तु हम आप से आपके विचार सुनना चाहते हैं, क्योंकि हमें मालूम है कि इस पंथ का सर्वत्र विरोध हो रहा है।”
23 अत: यहूदियों ने पौलुस के साथ एक दिन निश्चित किया और बड़ी संख्या में उनके यहाँ एकत्र हुए। पौलुस सुबह से शाम तक उनके लिए व्याख्या करते रहे। उन्होंने परमेश्वर के राज्य के विषय में साक्षी दी और मूसा की व्यवस्था तथा नबी-ग्रंथों के आधार पर उनको येशु के संबंध में समझाने का प्रयत्न किया।
24 उनमें कुछ लोग पौलुस के तर्क मान गये और कुछ अविश्वासी बने रहे।
25 जब वे आपस में सहमत नहीं हुए और विदा होने लगे, तो पौलुस ने उन से यह एक बात कही, “पवित्र आत्मा ने नबी यशायाह के मुख से आप लोगों के पूर्वजों से ठीक ही कहा है,
26 ‘इन लोगों के पास जा कर यह कहो: तुम सुनोगे अवश्य, पर नहीं समझोगे। तुम देखोगे अवश्य, पर तुम्हें सूझ नहीं पड़ेगा;
27 क्योंकि इन लोगों का मन मोटा हो गया है। ये कानों से ऊंचा सुनने लगे हैं। इन्होंने अपनी आँखें बन्द कर ली हैं। कहीं ऐसा न हो कि ये आँखों से देखें, कानों से सुनें, मन से समझें और मुझ-प्रभु की ओर अभिमुख हो जायें, और मैं इन्हें स्वस्थ कर दूँ।’
28 “इसलिए आप सब को मालूम हो कि परमेश्वर का यह मुक्ति-संदेश गैर-यहूदियों को भेजा गया है। वे अवश्य सुनेंगे।”
29 [जब पौलुस यह कह चुके, तो वे आपस में उग्र विवाद करते हुए चले गये। ]
30 पौलुस पूरे दो वर्षों तक अपने किराये के मकान में रहे। वह उन सब लोगों का स्वागत करते थे, जो उनसे मिलने आते थे।
31 वह निर्भीकता से तथा निर्विघ्न रूप से परमेश्वर के राज्य का सन्देश सुनाते और प्रभु येशु मसीह के विषय में शिक्षा देते रहे।